नाट्यशास्त्र-नाट्यभाषा आ मैथिली रंगमंच
एवं तु संस्कृतं पाठयं मया प्रोक्तं द्विजोतमा:!।
प्राकृतस्यापि पाठ्य स्य संप्रवक्ष्यामि लक्षणम्॥1॥
एतदेव विपर्यस्तं संस्कारगुरणवर्जितम्।
विज्ञेयं प्राकृतं पाठयं नानावस्थान्तरात्मकम्॥2॥
भरतमुनि विरचित नाट्य शास्त्रक अध्याय सत्रह मे चारूवर्ण मे समाश्रित संस्कृत आ प्राकृत पाठ्य के भेदक संदर्भ मे निरूपित काएल गेल अछि -संस्कारगुण स' आन्तरचितवृतसम्पाद्य परिरक्षण यत्न स' रहित जे संस्कृत पाठ्य अछि ओकरा प्राकृत पाठ्य मानल जाय। संगहि एहन प्राकृत पाठ्य देश, काल, पात्र, आदिक भिन्न अवस्था मे भिन्न-भिन्न होइत छैक। माने संस्कारगुण यानी परिरक्षण रूपयत्न स' वर्जित जे संस्कृत अछि वाएह प्राकृत थिक। किएक त' वाएह प्राकृत आ संस्कार रहित प्रकृति, संस्कृत आबि गेल अछि। अहिठाम उलझन आर बेसी बढि जाइत छैक। भाषा त' समयक संग काल पात्र आ देशक अनुसार क्रमश: बदलि जाइत छैक। भाषाक एहन बदलल स्वरूप जे अपभ्रंश भाषा कहबैत अछि ओकर विषय मे नाट्य शास्त्र कहैत अछि - भाषाक एहन भिन्न अवस्था 'देशविशेष' छैक। कारण ओहि अपभ्रंश रूपक जे स्वभाविकता छैक ओ त' क्षेत्र विशेषक भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक आ सांस्कृतिक परिस्थितिक कारणे नियत काएल गेल छैक। तेँ प्रकृत भाषा के अनुमान स वाचक अछि।
अभिनयक संदर्भ मे प्राकृत भाषा के तीन भेद मानल गेल अछि-तत्सम, विभ्रष्ट तद्भव आ देशी या देशज। देशी पदक प्रयोग करबा काल स्वरक सम्बन्धे स' उपयोग होईत अछि तेँ ओहो प्राकृते थिक। किछु विद्वजन के कहब छैन्ह एहन शब्द व्युतपन्न नहि काएल गेल प्रकृत स' निकलल अछि आ अव्युतपन्नजन के लेल प्रयोज्य अछि। अत: इ भाषा प्राकृत थिक। प्राकृतक विभक्ति मे लिंगक स्वतंत्रता होइत छैक ताहि कारणें संस्कृत आ प्राकृत पाठ्य मे भेद भेनाइ आवश्यक अछि। संभवत: अहि कारणे वाक्य के समास स' सम्पन्न करबाक योजना काएल गेल होयत।
दशरूपक मे प्रयोगक अनुसार चारि प्रकारक भाषाक निरूपन काएल गेल अछि। अतिभाषा, आर्यभाषा, जातिभाषा आ योन्यन्तरी भाषा। ध्यान रहाए जे सब भाषा मे संस्कृत आ प्राकृत पाठ्य क प्रयोग काएल जा सकैत अछि। पात्रक वाचिक अर्थात भाषा ओकर चरित्र के अनुसारे तय होईत छैक। देवताक लेल अतिभाषा, राजा आ राज परिवारक लेल आर्यभाषा, जातिभाषा विभिन्न जाति, समूह, स्थान आदिक लेल आ योन्यन्तरी भाषा पशु-पक्षी आ जंगली लोकक लेल मान्य अछि। सात प्रकार देशभाषाक निरूपन काएल गेल अछि-मागधी, आवन्ती, प्राच्या, शैरसेनी, अर्धमागधी, बाह्लिका आ दक्षिणात्य। संगही इहो कहल गेल छैक जे नाट्य मे अनेक देश-कालक विद्वान लोकनि द्वारा काव्यक रचना काएल जाइत अछि तेँ ओ अपन अभिप्रायक अनुसारे देशभाषाक प्रयोग करक लेल स्वतंत्र छथि। अहि ठाम एकटा प्रश्न उठैत अछि जे नाट्य मे केवल 'काव्ये' टा के प्रयोग होइत छल? वा नाट्य मे पात्रक द्वारा प्रयोग होइ बला वाचिक के काव्यक संज्ञा मात्र देल गेल छलै? इ गंभीर विमर्शक विषय थिक।
देश भाषाक प्राकृत पाठ्य मे आर बहुत रास उपभाषा निकलि क' अबैत छैक आ ओकर प्रयोग सेहो काल, पात्र आ देशक अनुसार होइत छैक। विदूषकक भाषा प्राच्या, धूर्तंक आवन्ती, नायिका आ नायिकाक सखी सबहक लेल शूरसेनी भाषाक निरूपन काएल गेल अछि। धूत करैवला कितव, युद्ववीर आ नागरक लेल दक्षिणात्य, उदीच्यक लेल बाह्लीका भाषाक निरूपन काएल गेल अछि। शकार एवं घोष जेकां समान स्वभाववला गण के शकार भाषा, पुल्कस, डोम, चाण्डाल के चाण्डाली भाषा, अंगार कारक लुहार, व्याध, बरही के शकार भाषाक प्रयोग करबाक चाही। बनौकसी जानवरक बस्ती मे रहय करय वाला जन के आभीरी, शाबरी आ वनचारी सब के द्रामिड़ी, सुरंग खोदय वला, घुड़शाल रक्षक, व्यसन मे पड़ल नायक के मागधी, बर्वर, किरांत, अन्ध्र, द्रविड़ आदि जाति के ओकर अपन भाषा, के प्रयोग करबाक चाहीA गंगा आ समुद्रक बीच में निवास करै बला विद्वान के एकार बहुला भाषा, विन्ध्ययाचल आ समुद्रक बीचक देशक लोक के नकार बहुला भाषा, सौराष्ट्र, उज्जयनी आ वत्रवती नदीक उत्तार मे रहैबला लोक के चकार बहुला भाषा, हिमवान् सिन्धु आ सौवीरक आश्रय वाला लोक के उकार बहुला भाषा, चर्मण्वती नदीक किछैर आ अर्बुदाली-पहाड़ीक निवासी के ओकार बहुला भाषाक प्रयोग करबाक चाही। एकर अलावे किछु भाषा के नाट्य मे हीन सेहो मानल गेल छैक जेना शकार, आभीर, चाण्डाल शवर द्रमिल, आन्ध्र एवं वनेचरक भाषा। दोसर दिस इहो कहल गेल छै जे देशभाषा में पात्रक ओकर काल, पात्र, देशक अनुकुल भाषाक प्रयोग करथि। अंतत: इ मानि सकैत छी जे पात्रक जाति, वर्ण, व्यवसाय, सामाजिक आ सांस्कृतिक परम्परा, रहन-सहन आदि पर ओकर भाषा निर्भर करैत छैक।
नाटकक पहिल कल्पना केनिहार ओकर लेखक होइत छथि, हुनके कल्पनाशीलताक बल पर नाटक सृजन होइत अछि। ओकर बाद निर्देशक ओहि नाटक के मूर्तरूप दैत छथि तकर बादक कार्य, पार्श्वक सब सदस्यक सहयोग ल' क' अभिनेता/अभिनेत्रीगण करैत छथि बाँकीक काज प्रेक्षक/समीक्षक/दर्शक स्वयं क' लैत छथि। नाटकक अहि कार्यव्यापार मे सब स' बेसी जिम्मेदारी लेखक के होइत छन्हि जे हुनकहि छानल नींव पर नाट्य रूपी महलक निर्माण होइत छैक।
देशक प्राचीनतम रंगमंच मे स एक मैथिली रंगमंच के अपन गौरवशाली इतिहास रहलैक अछि। प्राप्त स्रोतक आधार पर मैथिली नाट्य परम्पराक शुरूआत तेरहम शताब्दी स' मानल जाइत अछि। आदि कालक नाटक 'धूर्त समागम' स' 'सुनिते करय हरान' (2009) तक मे प्रयोग भेल भाषा मे क्रमागत परिवर्तन भेलैक अछि। मूल भाषा अपन मूलस्वरूप आ ओकर तत्कालिन अर्थ स' कतौ-कतौ दूर भ' गेल अछि। आदि काल मे मैथिलीक संग संस्कृत, अवहट्ट, ब्रजभाषा, स' प्रभावित छंद आदिक उपयोग देखल जाइत अछि।
आधुनिक मैथिली रंगमंचक आदिकाल जीवन झा द्वारा रचित 'सुन्दर संयोग' (1904) स' हरिमोहन झाक पाँच पत्रक नाट्य रूपांतरण 'सुनिते करय हरान' (2009) जकर रूपांतरकार महेन्द्र मलंगिया छथि, मे देशभाषाक प्रयोग बढ़ल अछि। मैथिली भाषाक सामाजिक अध्ययन एकटा सत्य के उजागर करैत अछि जे अहि पर जाति/वर्ग विशेषक एतेक हस्तक्षेप छैक जे समाजक लगभग दू तिहाई मैथिल एकरा अपन मातृभाषा मानय लेल तैयार नही छथि। जकर सोझे असरि मैथिली साहित्य आ मैथिली रंगमंच पर पड़लै। जहन की ज्ञातव्य हो जे नाट्य शास्त्र में एहन भाषा के जातिभाषाक रूप मे निरूपन काएल गेल अछि।
आधुनिक मैथिली रंगमंचक प्रारंभिक काल स' वर्तमान काल तक के किछु नाटक पढलाक व देखलाक बाद लगैत अछि-पात्र चाहे कोनो व्यवसाय, परिवेश, वाएस, संस्कृति, धर्म, वा जातिक हो मंच पर संवादक लय एक्के। जेना मंच पर संवाद पात्र नहि लेखक स्वयं बाजि रहल होथि। नाट्य लेखक ज' पी0 एच0 डी0 छथि त' नाटकक पात्र चाहे ओ बोनिहार हो, सम्भ्रान्त हो, भदेस हो, नौकर हो, वा मालिक हो संवादक भाषा पी0 एच0 डी0 जेकाँ। परन्तु आधुनिक मैथिली रंगमंच के 60 वर्ष बीतलाक बाद किछु लेखक अहि परम्परा के तोड़ि नाट्य शास्त्रक जातिभाषा के प्रावधानक अनुरूप पात्रानुकूल भाषाक प्रयोग शुरू केलन्हि। अहि मे सबस' खास लेखक छथि महेन्द्र मलंगिया। 1970 में अपन पहिल नाटक 'लक्ष्मण रेखा खण्डीत' स' 2009 में अनुदित 'सुनिते करय हरान' तक लगभग पैंतालिस विभिन्न प्रकारक नाटक मे भाषाक स्तर पर प्रयोग करैत रहला अछि। परिणामत: 'टुटल तागक एकटा ओर', 'नसबन्दी', 'बिरजू बिल्टु आ बाबू', 'ओकरा आंगनक बारहमासा', 'काठक लोक', 'गाम नइं सूतैए', 'ओरिजनल काम', 'खिच्चैड़', आ 'छुतहा घैल' आदि मैथिली नाटक मीलक पाथर मानल जाइत अछि।
मैथिली मे सबस' बेसी भाषिक विविधता छैक। दुर्भाग्य इ अछि जे हमसब एहन भाषिक विविधता के स्वीकार करय लेल तैयार नहि छी। किछु विद्वजन एकरा बनौआ भाषाक संज्ञा दैत छथि त' कियो एकरा हास्य उत्पन्न करक कारण मानैत छथि। तर्क एक्के टा - इ शास्त्रीय नहि अछि तें इ भाषा बहिष्कृत आ एकर लेखक बहिष्कार योग्य। परन्तु हमरा इ नहि बिसरक चाही जे नाटक प्रदर्शनकारी कला थिक आ एकर अंतिम सत्य प्रदर्शन होइत छैक सेहो एक बेर नहि बेर-बेर।
एकटा कहबि छैक ''मैथिल कने बेसिये दुलारू होइत छथि।'' ज' एक बेर कलम उठैलहु त' लेखनीक सब विधा मे हाथ भांजि लिय'। नाटक हो, काव्य हो, कहानी हो, समीक्षा हो, संस्मरण हो, उपन्यास हो चाहे टिप्पणी हो। एकहि साधे सब सधे। जखनहि लेखक भेलहु कि जोगारक चौखरी भेल, आ जखनहि जोगार भेल की लिय'। नाटक लिखना-देखना-केना चाहे पाँचो-दसो बरख भ गेल हो नाट्य समीक्षा आ सेमिनार चलिते रहत, ज' से नहि भेल त' रूसी रहू।
हालहि मे साहित्य अकादेमी दिल्ली स' प्रकाशित मैथिली पोथी ''आधुनिक मैथिली रंगमंच : अतीत वर्तमान आ भविष्य'' आएल अछि। इ पुस्तक एकटा सेमिनार मे पढल गेल लेखक संकलन थिक। बहुत कम भाषायि रंगमंच एतेक भग्यशाली अछि जकर भूत, वर्तमान आ भविष्यक चिन्ता करैक लेल एक दिन, एक समय, एक मंच पर 19-20 टा अजोध विद्वान घमरथरन करथि। पुस्तक मे एक स एक ज्ञानवर्धक आलेख सब छैक, जे नव पीढी आ बहुतो हद तक पुरानो पीढीक लेल ज्ञानवर्धन करतैन्ह। किछु आलेख त' दस्तावेज जेकां छैक, परन्तु किछु आलेख दिक्भ्रम सेहो करैछ। पोथी मे 'आधुनिक मैथिली नाटक मे संवाद ओ भाषा' विषयक आलेख मे मैथिली नाटक मे नाट्य भाषाक विश्लेषण काएल गेल अछि। ओना त' लेख मे बहुत रास मतभिन्नता छैक परन्तु एतय किछु बिन्दु के चर्चा करय चाहब। संवादक संक्षिप्तताक क्रम मे (पृष्ठ 67-68) लेखक कहैत छथि नाटककार लोकनि संक्षिप्त संवादक आग्रही छथि जे कतेको ठाम निरर्थक बुझााइत अछि यथा -
छठम - रे बाप कहाँ गेलौ ?
सातम - नइ देखलियै ग'।
आठम - आ माय ?
सातम - ओकरो नइ देखलियै ग'।
छठम - त' की देखलहि ग' ?
सतम - कुच्छो नइ।
आठम - आ तों कहाँ गेल छलें ?
सातम - हऽ गऽ।
आठम - चुप्प सार।
(ओकरा आंगनक बारहमासा पृष्ठ 30)
लेखक के कहब छन्हि जे नाटककारक एकमात्र उद्देश्य अश्लील शब्दाबलीक प्रयोग केवल हास्य उत्पन्न करक छैन्ह। परन्तु ज' गम्भीरता स' अहि नाटक के देखल वा पढ़ल जाए त' जाहि दृश्यक इ टुकड़ा छियै ओहि दृश्य में नाटकीय तत्व आ नाटकीय मूल्य दुनू के स्थापित करै मे उपयुक्त संवाद के बड़ पैघ हाथ छैक। दोसर दिस केवल उपर्युक्त संवाद स' नाटकक धुँआएले परन्तु एकटा चित्र बनि जाइत छैक। सम्बन्धक भाषाक क्रम मे आलेख मे महिला भाषाक उल्लेख सेहो केने छथि (पृष्ठ 77-78)। परन्तु ज' संवाद ससुर-जमाय वा सासु-जमाय के बीच हो त' ? आलेखक अंत मे त' आर बेसी हद भ' गेल अछि। पृष्ठ 77-78 पर जाहि बनौआ भाषा के सर्वाहारा वर्गक मैथिली, नहि जनैबला विशृंखल मैथिली लेखकक देन बुझैत छथि वस्तुत: ओ भाषा मैथिलीक जातिभाषा थिक। एकर व्यापक प्रयोग स' देशक सबस' बेसी भाषिक विविधिता बला रंगमंच, मैथिली रंगमंच के भविष्यक लेल नीक होयतैक। की देशभाषाक एकटा रूप नहि छै तथाकथित सर्वाहारा वर्गक भाषा ? एहन पुस्तक जकरा राष्ट्रीय अकादेमी छापि रहल हो वा एहन सेमिनार जकरा राष्ट्रीय अकादेमी आयोजित क' रहल हो, ओहि मे लिखल वा कहल एक-एक शब्द दस्तावेज़ मानल जाइत छैक। तें कने सम्हरि क'।
अन्त मे एतबे जे नाटकक समीक्षक वा सेमिनारक वक्ता होइ के लेल नाटकक समझ भेनाइ आवश्यक छैक। तेँ इ कोनो जरूरी नइ जे आहाँ अभिनेता होइ, निर्देशक होइ, नाट्य लेखक होइ, मंच पार्श्वक कार्यकर्ता होइ, नाट्य संगीतज्ञ होइ। परन्तु कम स' कम नाट्य प्रेक्षक त' अवश्य होइ।
- काश्यप कमल, दिल्ली
Wednesday, May 5, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
ब्लॉग जगत में अपनेक स्वागत अछि। सारगर्भित आलेख। मैथिली में गंभीर ब्लॉगिग दिस एक सार्थक प्रयास।
ReplyDeleteरुचिगर सूचनाक मंचः www.krraman.blogspot.com पर अपने आमंत्रित छी।